उत्तरकाण्ड
उत्तरकाण्ड पेज 5
छं0- जय राम रमारमनं समनं। भव ताप भयाकुल पाहि जनं।।
अवधेस सुरेस रमेस बिभो। सरनागत मागत पाहि प्रभो।।1।।
दससीस बिनासन बीस भुजा। कृत दूरि महा महि भूरि रुजा।।
रजनीचर बृंद पतंग रहे। सर पावक तेज प्रचंड दहे।।2।।
महि मंडल मंडन चारुतरं। धृत सायक चाप निषंग बरं।।
मद मोह महा ममता रजनी। तम पुंज दिवाकर तेज अनी।।3।।
मनजात किरात निपात किए। मृग लोग कुभोग सरेन हिए।।
हति नाथ अनाथनि पाहि हरे। बिषया बन पावँर भूलि परे।।4।।
बहु रोग बियोगन्हि लोग हए। भवदंघ्रि निरादर के फल ए।।
भव सिंधु अगाध परे नर ते। पद पंकज प्रेम न जे करते।।5।।
अति दीन मलीन दुखी नितहीं। जिन्ह के पद पंकज प्रीति नहीं।।
अवलंब भवंत कथा जिन्ह के।। प्रिय संत अनंत सदा तिन्ह कें।।6।।
नहिं राग न लोभ न मान मदा।।तिन्ह कें सम बैभव वा बिपदा।।
एहि ते तव सेवक होत मुदा। मुनि त्यागत जोग भरोस सदा।।7।।
करि प्रेम निरंतर नेम लिएँ। पद पंकज सेवत सुद्ध हिएँ।।
सम मानि निरादर आदरही। सब संत सुखी बिचरंति मही।।8।।
मुनि मानस पंकज भृंग भजे। रघुबीर महा रनधीर अजे।।
तव नाम जपामि नमामि हरी। भव रोग महागद मान अरी।।9।।
गुन सील कृपा परमायतनं। प्रनमामि निरंतर श्रीरमनं।।
रघुनंद निकंदय द्वंद्वघनं। महिपाल बिलोकय दीन जनं।।10।।
दो0-बार बार बर मागउँ हरषि देहु श्रीरंग।
पद सरोज अनपायनी भगति सदा सतसंग।।14(क)।।
बरनि उमापति राम गुन हरषि गए कैलास।
तब प्रभु कपिन्ह दिवाए सब बिधि सुखप्रद बास।।14(ख)।।
सुनु खगपति यह कथा पावनी। त्रिबिध ताप भव भय दावनी।।
महाराज कर सुभ अभिषेका। सुनत लहहिं नर बिरति बिबेका।।
जे सकाम नर सुनहिं जे गावहिं। सुख संपति नाना बिधि पावहिं।।
सुर दुर्लभ सुख करि जग माहीं। अंतकाल रघुपति पुर जाहीं।।
सुनहिं बिमुक्त बिरत अरु बिषई। लहहिं भगति गति संपति नई।।
खगपति राम कथा मैं बरनी। स्वमति बिलास त्रास दुख हरनी।।
बिरति बिबेक भगति दृढ़ करनी। मोह नदी कहँ सुंदर तरनी।।
नित नव मंगल कौसलपुरी। हरषित रहहिं लोग सब कुरी।।
नित नइ प्रीति राम पद पंकज। सबकें जिन्हहि नमत सिव मुनि अज।।
मंगन बहु प्रकार पहिराए। द्विजन्ह दान नाना बिधि पाए।।
दो0-ब्रह्मानंद मगन कपि सब कें प्रभु पद प्रीति।
जात न जाने दिवस तिन्ह गए मास षट बीति।।15।।
बिसरे गृह सपनेहुँ सुधि नाहीं। जिमि परद्रोह संत मन माही।।
तब रघुपति सब सखा बोलाए। आइ सबन्हि सादर सिरु नाए।।
परम प्रीति समीप बैठारे। भगत सुखद मृदु बचन उचारे।।
तुम्ह अति कीन्ह मोरि सेवकाई। मुख पर केहि बिधि करौं बड़ाई।।
ताते मोहि तुम्ह अति प्रिय लागे। मम हित लागि भवन सुख त्यागे।।
अनुज राज संपति बैदेही। देह गेह परिवार सनेही।।
सब मम प्रिय नहिं तुम्हहि समाना। मृषा न कहउँ मोर यह बाना।।
सब के प्रिय सेवक यह नीती। मोरें अधिक दास पर प्रीती।।
दो0-अब गृह जाहु सखा सब भजेहु मोहि दृढ़ नेम।
सदा सर्बगत सर्बहित जानि करेहु अति प्रेम।।16।।
Bihar became the first state in India to have separate web page for every city and village in the state on its website www.brandbihar.com (Now www.brandbharat.com)
See the record in Limca Book of Records 2012 on Page No. 217