चरन गहे अँगुठा मुख मेलत |
नंद-घरनि गावति, हलरावति, पलना पर हरि खेलत ||
जे चरनारबिंद श्री-भूषन, उर तैं नैंकु न टारति |
देखौं धौं का रस चरननि मैं, मुख मेलत करि आरति ||
जा चरनारबिंद के रस कौं सुर-मुनि करत बिषाद |
सो रस है मोहूँ कौं दुरलभ, तातैं लेत सवाद ||
उछरत सिंधु, धराधर काँपत, कमठ पीठ अकुलाइ |
सेष सहसफन डोलन लागे हरि पीवत जब पाइ ||
बढ़यौ बृक्ष बट, सुर अकुलाने, गगन भयौ उतपात |
महाप्रलय के मेघ उठे करि जहाँ-तहाँ आघात ||
करुना करी, छाँड़ि पग दीन्हौं, जानि सुरनि मन संस |
सूरदास प्रभु असुर-निकंदन, दुष्टनि कैं उर गंस ||
भावार्थ :-- श्रीनन्दपत्नी गाती जाती हैं, झुलाती हैं, श्याम पलनेमें लेटे खेल रहे
हैं | वे हाथ से चरण पकड़कर अँगूठेको मुख में डाल रहे हैं | मेरे जिस चरणकमल
को लक्ष्मीजी अपना आभूषण बनाये रहती हैं | हृदयपरसे जिसे तनिक भी नहीं हटातीं,
देखूँ तो उन चरणोंमें क्या रस है?' यह सोचकर बड़ी उत्सुकतापूर्वक उसे मुखमें डाल
रहे हैं |
`मेरे जिस चरणकमले रसको पाने के लिये देवता और मुनिगण भी चिन्ता किया करते हैं,
वह (अपने चरणोंका) रस तो मेरे लिये भी दुर्लभ है' इसीलिये मानो प्रभु उसका स्वाद ले
रहे हैं | लेकिन जब श्रीहरि अपने पैरके अँगूठेको पीने लगे, तब (प्रलयकाल समझकर)
समुद्र उछलने लगा, पर्वत काँपने लगे, (शेषको भी धारणकरने वाले) कच्छप की पीठ
व्याकुल हो उठी, (भारको हटानेके लिये) शेषनागके सहस्र फण (फुत्कार करने के लिये)
हिलने लगे, अक्षयवटका वृक्ष बढ़ने लगा, देवता व्याकुल हो उठे, आकाशमें उत्पात होने
लगा (तारे टूटने लगे) और महाप्रलयके बादल स्थान-स्थानपर वज्रपात करने प्रकट हो गये
इससे देवताओंके मनको सशंकित समझकर प्रभु ने कृपा करके पैर छोड़ दिया | सूरदासजी
कहते हैं--मेरे स्वामी तो असुरोंका विनाश करनेवाले हैं (प्रलय करनेवाले नहीं हैं)|
केवल दुष्टोंके हृदयमें उनके कारण काँटा चुभता (वेदना होती) है |
Bihar became the first state in India to have separate web page for every city and village in the state on its website www.brandbihar.com (Now www.brandbharat.com)
See the record in Limca Book of Records 2012 on Page No. 217