राग जैतश्री
कनक-रतन-मनि पालनौ, गढ़्यौ काम सुतहार |
बिबिध खिलौना भाँति के (बहु) जग-मुक्ता चहुँधार ||
जननि उबटि न्हवाइ कै (सिसु) क्रम सौं लीन्है गोद |
पौढ़ाए पट पालनैं (हँसि) निरखि जननि मन-मोद ||
अति कोमल दिन सात के (हो) अधर चरन कर लाल |
सूर स्याम छबि अरुनता (हो) निरखि हरष ब्रज-बाल ||
भावार्थ :-- बढ़ईने रत्न तथा मणियोंसे जड़ा पलना बड़ी कारीगरी करके बनाया है |
उसमे अनेक भाँति के खिलौने लटक रहे हैं और चारों ओर जगमुक्ताकी लड़ियाँ लगी हैं |
माताने उबटन लगाकर, स्नान कराके धीरे से शिशुको गोदमें उठाया और पलने में सुलाकर
वस्त्र ऊपर डाला, फिर हँसकर (पुत्र को ) देखकर माताके मनमें बड़ा आनन्द हुआ | अभी
अत्यन्त कोमल हैं, केवल सात दिनके हैं, अधर, चरन तथा कर लाल-लाल हैं, सूरदासजी
कहते हैं--श्यामसुन्दरकी अरुणिम छटा देखकर व्रजकी नारियाँ हर्षित हो रही हैं |
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See the record in Limca Book of Records 2012 on Page No. 217