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मुंशी प्रेमचंद
वरदान
24 प्रेम का स्वप्न
पेज- 72
माधवी का मुखमण्डल प्रेम-ज्योति से अरुणा हो रहा था। बालाजी ने सब कुछ सुना और चुप हो गये। सोचने लगे- यह स्त्री है ; जिसने केवल मेरे ध्यान पर अपना जीवन समर्पण कर दिया है। इस विचार से बालाजी के नेत्र अश्रुपूर्ण हो गये। जिस प्रेम ने एक स्त्री का जीवन जलाकर भस्म कर दिया हो उसके लिए एक मनुष्य के घैर्य को जला डालना कोई बात नहीं! प्रेम के सामने धैर्य कोई वस्तु नहीं है। वह बोले- माधवी तुम जैसी देवियाँ भारत की गौरव है। मैं बड़ा भाग्यवान हूँ कि तुम्हारे प्रेम-जैसी अनमोल वस्तु इस प्रकार मेरे हाथ आ रही है। यदि तुमने मेरे लिए योगिनी बनना स्वीकार किया है तो मैं भी तुम्हारे लिए इस सन्यास और वैराग्य का त्याग कर सकता हूँ। जिसके लिए तुमने अपने को मिटा दिया है।, वह तुम्हारे लिए बड़ा-से-बड़ा बलिदान करने से भी नहीं हिचकिचायेगा।
माधवी इसके लिए पहले ही से प्रस्तुत थी, तुरन्त बोली- स्वामीजी! मैं परम अबला और बुद्विहीन सत्री हूँ। परन्तु मैं आपको विश्वास दिलाती हूँ कि निज विलास का ध्यान आज तक एक पल के लिए भी मेरे मन मे नही आया। यदि आपने यह विचार किया कि मेर प्रेम का उद्देश्य केवल यह क आपके चरणों में सांसारिक बन्धनों की बेड़ियाँ डाल दूँ, तो (हाथ जोड़कर) आपने इसका तत्व नहीं समझा। मेरे प्रेम का उद्देश्य वही था, जो आज मुझे प्राप्त हो गया। आज का दिन मेरे जीवन का सबसे शुभ दिन है। आज में अपने प्राणनाथ के सम्मुख खड़ी हूँ और अपने कानों से उनकी अमृतमयी वाणी सुन रही हूँ। स्वामीजी! मुझे आशा न थी कि इस जीवन में मुझे यह दिन देखने का सौभाग्य होगा। यदि मेरे पास संसार का राज्य होता तो मैं इसी आनन्द से उसे आपके चरणों में समर्पण कर देती। मैं हाथ जोड़कर आपसे प्रार्थना करती हूँ कि मुझे अब इन चरणों से अलग न कीजियेगा। मै। सन्यस ले लूँगी और आपके संग रहूँगी। वैरागिनी बनूँगी, भभूति रमाऊँगी; परन्त् आपका संग न छोडूँगी। प्राणनाथ! मैंने बहुत दु:ख सहे हैं, अब यह जलन नहीं सकी जाती।
यह कहते-कहते माधवी का कंठ रुँध गया और आँखों से प्रेम की धारा बहने लगी। उससे वहाँ न बैठा गया। उठकर प्रणाम किया और विरजन के पास आकर बैठ गयी। वृजरानी ने उसे गले लगा लिया और पूछा– क्या बातचीत हुई?
माधवी- जो तुम चहाती थीं।
वृजरानी- सच, क्या बोले?
माधवी- यह न बताऊँगी।
वृजरानी को मानो पड़ा हुआ धन मिल गया। बोली- ईश्वर ने बहुत दिनों में मेरा मनारेथ पूरा किया। मे अपने यहाँ से विवाह करुँगी।
माधवी नैराश्य भाव से मुस्करायी। विरजन ने कम्पित स्वर से कहा- हमको भूल तो न जायेगी? उसकी आँखों से आँसू बहने लगे। फिर वह स्वर सँभालकर बोली- हमसे तू बिछुड़ जायेगी।
माधवी- मैं तुम्हें छोड़कर कहीं न जाऊँगी।
विरजन- चल; बातें ने बना।
माधवी- देख लेना।
विरजन- देखा है। जोड़ा कैसा पहनेगी?
माधवी- उज्ज्वल, जैसे बगुले का पर।
विरजन- सोहाग का जोड़ा केसरिया रंग का होता है।
माधवी- मेरा श्वेत रहेगा।
विरजन- तुझे चन्द्रहार बहुत भाता था। मैं अपना दे दूँगी।
माधवी-हार के स्थान पर कंठी दे देना।
विरजन- कैसी बातें कर रही हैं?
माधवी- अपने श्रृंगार की!
विरजन- तेरी बातें समझ में नहीं आती। तू इस समय इतनी उदास क्यों है? तूने इस रत्न के लिए कैसी-कैसी तपस्याएँ की, कैसा-कैसा योग साधा, कैसे-कैसे व्रत किये और तुझे जब वह रत्न मिल गया तो हर्षित नहीं देख पड़ती!
माधवी- तुम विवाह की बातीचीत करती हो इससे मुझे दु:ख होता है।
विरजन- यह तो प्रसन्न होने की बात है।
माधवी- बहिन! मेरे भाग्य में प्रसन्नता लिखी ही नहीं! जो पक्षी बादलों में घोंसला बनाना चाहता है वह सर्वदा डालियों पर रहता है। मैंने निर्णय कर लिया है कि जीवन की यह शेष समय इसी प्रकार प्रेम का सपना देखने में काट दूँगी।
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